Tuesday, November 21, 2023

 Wear Sunglasses( Polarized preferred) and a Cap while driving car.

I rarely see people wearing sunglasses and cap while driving car or any other four wheeler but the ones who wear are smart drivers (including myself) surely for below reasons:

  1. Sunglass protect your eyes from harmful UV rays. 
  2. Cap helps to avoid direct sunlight on your face and eyes providing needed comfort.
E.g. I wear them even early morning before sunrise as using polarized glass you can easily see through even in low light because as I start from home I know I won't be getting chance to wear them in running car. So better be prepared.
Cap also I wear in advance as I know within some half an hour Sun rise will happen and on some turns I will be facing it directly. At that very moment being in the moving traffic they helps to focus on safe driving by proving much needed comfort to my eyes and face.

Even if some other people or the family/friend siting next to you may not get chance to have occasional eye contacts talking to you in the cockpit- it is fine. While driving your main aim is to drive safe and reach to the destination without harming your eyes. They say- where your eye goes your car follows :) 

While wearing sunglasses it also helps very much to avoid unnecessary eye contacts with other people walking side roads/ some other drivers beside or behind you. 

Most important you look amazing and a Confident driver who knows that there are certain things you wear not to show off but there is a utility of it and you care yourself and others by this safe practice.

Came across an interesting article: the-importance-of-good-vision-while-driving


Happy and Safe Driving friends!

Monday, February 13, 2012

जुहो-जुहो-जुहो...(Juho-Juho-Juho : A Melancholy Song of the Soul...)

भगवान! एक प्यास है मेरे भीतर , बस इतना ही जनता हूँ ।

किस बात की है यह भी कुछ साफ साफ नहीं...आप कुछ कहें।

ओशो : मैं एक कहानी कहूँगा...हिमालय की वादियों में एक चिड़ियाँ रट लगाती है: जुहो-जुहो-जुहो...

अगर तुम हिमालय गए हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरे पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं। घने जंगलों में, घाटियों में एक स्वर हमेशा गूंजता रहता है--जुहो,जुहो,जुहो ...

और एक रीसता दर्द पीछे छोड़ जाता है। इस पक्षी के बारे में एक मार्मिक लोक कथा है।


किसी ज़माने में एक अत्यंत रूपवती पहाड़ी कन्या थी जो 'wordsworth' की लूसी की भांति झरनों के संगीत, वृक्षों के मर-मर और घाटियों की प्रतिध्वनि पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान जहाँ सूरज आग की तरह तपता है ।

जंगलों ,झरनों का जहाँ नाम-निशान भी नहीं ।

प्रीतम के स्नेह की छाया में वर्षा और शर्दी के दिन तो किसी तरह बीत गए। और फिर आये सूरज के तपते हुए दिन ... वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए । उसने नैहर जाने की प्रार्थना की ।

आग बरसती थी । न सो सकती थी, न उठ सकती थी,न बैठ सकती थी । ऐसी आग उसने जानी न थी । पहाड़ों के झरनों के पास पली थी , पहाड़ों की शीतलता में बढ़ी थी , हमालय उसके रोये-रोये में बसा था । पर सास ने इंकार कर दिया । वह धूप में तपे गुलाब की तरह कुम्हलाने लगी । श्रृंगार छूटा , वेश-विन्याश छूटा । खाना-पीना भी छूट गया । अंत में सास ने कहा , अच्छा कल भेज देंगे ।

सुबह हुई , उसने आकुलता से पूछा : "जुहो?" जाऊं? 'जुहो' पहाड़ी भाषा में अर्थ रखता है: 'जाऊं?'

सास ने कहा : "बोल्जाला!" मतलब कल सुबह जाना । वह और भी मुरझा गयी ।

एक दिन किसी तरह कट गया । दूशरे दिन उसने फिर पूछा : "जुहो?" सास ने कहा : "बोल्जाला!"

रोज़ वह अपना सामान सवारती , रोज़ प्रीतम से विदा लेती , रोज़ सुबह उठती और रोज़ पूछती:"जुहो?" और रोज़ सुनने को मिलता: "बोल्जाला!!"


एक दिन जेठ का तपतापा लग गया और धरती धूप में चटक गयी , वृक्षों पर चिड़ियें लू खा कर गिरने लगी । उसने अंतिम बार सूखे कंठ से पूछा: "जुहो?" सास ने कहा: "बोल्जाला!' फिर वह कुछ भी न बोली । शाम एक वृक्ष के निचे वह प्राणहीन, मृत पाई गयी । गर्मी से काली पड़ गयी थी ।

वृक्ष के डाली पर एक चिड़िया बैठी थी जो गर्दन हिला कर बोली: "जुहो?" और उत्तर के प्रतीक्षा के बिना अपने नन्हे पंख फैला कर हिमालय , हिमाच्छादित शिखरों की तरफ उड़ गयी । तब से आज तक वह चिड़िया पूछती है: "जुहो?" "जुहो?" और एक कर्कस स्वर पक्षी जबाब देता है: "बोल्जाला!" और वह चिड़िया चुप हो जाती है।


ऐसी पुकार हम सब के मन में है ।

न मालूम किन शांत ,हरयाली घाटियों से हम आये हैं । न मालूम किस और दुनिया के हम वासी हैं ।

यह जगत हमारा घर नहीं । यहाँ हम अजनबी हैं । यहाँ हम परदेसी हैं ।

और निरंतर एक प्यास भीतर है - अपने घर लौट जाने की । हिमाच्छादित शिखरों को छूने की ।


जब तक परमात्मा में हम वापस न लौट जाएँ तब तक यह प्यास जारी रहती है ।

प्राण पूछते ही रहते हैं: "जुहो? जुहो? जुहो?"


तुमने पूछा है :" मेरे भीतर एक प्यास है बस इतना ही जनता हूँ , किस बात की यह साफ नहीं है ।

आप कुछ कहें ..."

मैंने ये कहानी कही ; इसपर ध्यान करना ।

ये प्यास सभी के भीतर है - पता हो , पता न हो ।

होश से समझो तो साफ हो जाएगी , होश से न समझो तो धुंधली -धुंधली बनी रहेगी और भीतर भीतर सरकती रहेगी । लेकिन यह पृथ्वी हमारा घर नहीं है । यहाँ हम अजनबी हैं ।

हमारा घर कहीं और है -समय के पार-स्थान के पार । बाहर हमारा घर नहीं है; भीतर हमारा घर है ।

और भीतर है शांति , और भीतर है सुख , और भीतर है समाधी । उसकी ही प्यास है ।

-ओशो ( एस धम्मो सनन्तनो)

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