भगवान! एक प्यास है मेरे भीतर , बस इतना ही जनता हूँ ।
किस बात की है यह भी कुछ साफ साफ नहीं...आप कुछ कहें।
ओशो : मैं एक कहानी कहूँगा...हिमालय की वादियों में एक चिड़ियाँ रट लगाती है: जुहो-जुहो-जुहो...
अगर तुम हिमालय गए हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरे पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं। घने जंगलों में, घाटियों में एक स्वर हमेशा गूंजता रहता है--जुहो,जुहो,जुहो ...
और एक रीसता दर्द पीछे छोड़ जाता है। इस पक्षी के बारे में एक मार्मिक लोक कथा है।
किसी ज़माने में एक अत्यंत रूपवती पहाड़ी कन्या थी जो 'wordsworth' की लूसी की भांति झरनों के संगीत, वृक्षों के मर-मर और घाटियों की प्रतिध्वनि पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान जहाँ सूरज आग की तरह तपता है ।
जंगलों ,झरनों का जहाँ नाम-निशान भी नहीं ।
प्रीतम के स्नेह की छाया में वर्षा और शर्दी के दिन तो किसी तरह बीत गए। और फिर आये सूरज के तपते हुए दिन ... वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए । उसने नैहर जाने की प्रार्थना की ।
आग बरसती थी । न सो सकती थी, न उठ सकती थी,न बैठ सकती थी । ऐसी आग उसने जानी न थी । पहाड़ों के झरनों के पास पली थी , पहाड़ों की शीतलता में बढ़ी थी , हमालय उसके रोये-रोये में बसा था । पर सास ने इंकार कर दिया । वह धूप में तपे गुलाब की तरह कुम्हलाने लगी । श्रृंगार छूटा , वेश-विन्याश छूटा । खाना-पीना भी छूट गया । अंत में सास ने कहा , अच्छा कल भेज देंगे ।
सुबह हुई , उसने आकुलता से पूछा : "जुहो?" जाऊं? 'जुहो' पहाड़ी भाषा में अर्थ रखता है: 'जाऊं?'
सास ने कहा : "बोल्जाला!" मतलब कल सुबह जाना । वह और भी मुरझा गयी ।
एक दिन किसी तरह कट गया । दूशरे दिन उसने फिर पूछा : "जुहो?" सास ने कहा : "बोल्जाला!"
रोज़ वह अपना सामान सवारती , रोज़ प्रीतम से विदा लेती , रोज़ सुबह उठती और रोज़ पूछती:"जुहो?" और रोज़ सुनने को मिलता: "बोल्जाला!!"
एक दिन जेठ का तपतापा लग गया और धरती धूप में चटक गयी , वृक्षों पर चिड़ियें लू खा कर गिरने लगी । उसने अंतिम बार सूखे कंठ से पूछा: "जुहो?" सास ने कहा: "बोल्जाला!' फिर वह कुछ भी न बोली । शाम एक वृक्ष के निचे वह प्राणहीन, मृत पाई गयी । गर्मी से काली पड़ गयी थी ।
वृक्ष के डाली पर एक चिड़िया बैठी थी जो गर्दन हिला कर बोली: "जुहो?" और उत्तर के प्रतीक्षा के बिना अपने नन्हे पंख फैला कर हिमालय , हिमाच्छादित शिखरों की तरफ उड़ गयी । तब से आज तक वह चिड़िया पूछती है: "जुहो?" "जुहो?" और एक कर्कस स्वर पक्षी जबाब देता है: "बोल्जाला!" और वह चिड़िया चुप हो जाती है।
ऐसी पुकार हम सब के मन में है ।
न मालूम किन शांत ,हरयाली घाटियों से हम आये हैं । न मालूम किस और दुनिया के हम वासी हैं ।
यह जगत हमारा घर नहीं । यहाँ हम अजनबी हैं । यहाँ हम परदेसी हैं ।
और निरंतर एक प्यास भीतर है - अपने घर लौट जाने की । हिमाच्छादित शिखरों को छूने की ।
जब तक परमात्मा में हम वापस न लौट जाएँ तब तक यह प्यास जारी रहती है ।
प्राण पूछते ही रहते हैं: "जुहो? जुहो? जुहो?"
तुमने पूछा है :" मेरे भीतर एक प्यास है बस इतना ही जनता हूँ , किस बात की यह साफ नहीं है ।
आप कुछ कहें ..."
मैंने ये कहानी कही ; इसपर ध्यान करना ।
ये प्यास सभी के भीतर है - पता हो , पता न हो ।
होश से समझो तो साफ हो जाएगी , होश से न समझो तो धुंधली -धुंधली बनी रहेगी और भीतर भीतर सरकती रहेगी । लेकिन यह पृथ्वी हमारा घर नहीं है । यहाँ हम अजनबी हैं ।
हमारा घर कहीं और है -समय के पार-स्थान के पार । बाहर हमारा घर नहीं है; भीतर हमारा घर है ।
और भीतर है शांति , और भीतर है सुख , और भीतर है समाधी । उसकी ही प्यास है ।
-ओशो ( एस धम्मो सनन्तनो)