Saturday, August 8, 2009

The Namesake

'The Namesake' किसी के एक नाम को लेकर एक सोच , एक कहानी।
जो नाम किसी के लिए कभी बहोत अज़ीज़ होता है, और कभी किसी के जिंदगी की किताब में नाम से कहीं जादा एक पुरा का पुरा अध्याय होता है...
ये कहानी कुछ अर्थों में प्रेरक और मनोरंजक होने के साथ-साथ यथार्थवादी भी है। जिंदगी के अलग-अलग दौर , लोगों के रिश्ते-नातों और मुलाकातों में हालात के साथ आए बदलाव का सजीव चित्रण ।
हम कहते हैं की नाम में क्या रखा है... पर एक नाम किसी को बस बुलाने का जरिया ही नही होता, बल्कि किसी के लिए वो दो दिलों का लगाव होता है,आपसी प्यार होता है, कुछ खाश पलों की याद होता है।
ये कहानी एक भारतीय की अमरीकी जिंदगी और उसके जीवन के एक अहम घटना और उससे जुड़े एक नाम का पुरा ताना-बना है । कहानी में यूँ तो कहें तो एक ही प्रमुख पात्र है- 'गोगोल गांगुली ' उर्फ़ 'निखिल' , लेकिन ये तो बस के नाम की कशमकश है जो शुरू से आख़िर तक कहानी को एक दिशा देती है और एक आकर्षण बनाये रखती है।
अशोक और आशिमा गांगुली कहानी में भारतीय दम्पति हैं जो अमरीका में रहने आते हैं और अपने बेटे का नाम जल्दी में 'गोगोल' रखते हैं जो अशोक के चहेते russsian राईटर का नाम और अशोक की जिंदगी में आए एक turning point की याद होता है। मगर समय बीतते ये नाम अशोक के बेटे के लिए कोई मायने नही रखता और वो इससे बदल देता है। नाम बदले की चाहत और अपने वजूद को तलाशती उसकी जिंदगी के इर्द-गिर्द कहानी घुमती है। और इस बीच उसके अमरीकी जिंदगी की झलक मिलती है जहाँ sex, extra maritial affairs, independent living आदि आम होती हैं। अलग अलग मौकों पर उनका भारत भ्रमण और कुछ यादें हैं जो एक प्रवाशी भारतीय का अपने देश से लगाव दिखलाता है। अशोक कहानी में कुछ जादा नही बोलता और आशिमा भी जादा चुप ही होती है...जो और भी खामोश हो जाती है अशोक के heart attack और निधन के बाद।
एक पिता-पुत्र का प्रेम 'गोगोल' अपने पिता अशोक के जीते जी समझ तो पता है पर उनके गुजर जाने पे वो नाम जो उसके पिता ने कभी उसे दिया था और जिसे उसने बाद में एक 'भालो' नाम 'निखिल' से बदल दिया ,इक गहरी संवेदना अपने पीछे छोड़ जाती है।
मैंने इस किताब पे बनी फ़िल्म भी देखि है पहले, मगर इसको पढ़ कर इसके किरदारों और घटनाओं से जैसा जुडाव हुआ , जैसी समझ जगी वो फ़िल्म में थोडी कम थी।
इसके बाद 'झुम्पा लहरी' की बाकि दो किताबों को भी पढने की सोच रहा हूँ , इसलिए नही की उसने अभी कम ही किताबें लिखी हैं और अपना इक रिकॉर्ड बना लूँ उसकी सब किताबें पढ़ कर, बल्कि इस्सलिये की वो अच्छा और समीचीन भी लिखती हैं ।

Sunday, August 2, 2009

मेरी प्यारी नानी

बचपन में जो मेरी माँ के बाद सबसे प्यारी थी मेरे लिए , जिसकी हर बात मिश्री की तरह थी ,जिसकी निगरानी में बचपन के वो हशीन दिन इतने महफूज़ बीते , जिनकी कहानियां सुन-सुन के हम बड़े हुए और जो इतने बड़े परिवार में मातामही थीं ,मेरी नानी पिछले रात इस दुनिया से चल बसी ।

अप्रैल से ही जब नाना जी गुजर गए , नानी की तबियत भी बिगड़ने लगी थी । अभी हाल में ही उनके पैर में एक चोट आई थी जिसके असहनीय दर्द का वर्णन नहीं है । फ़िर अपने सामने में पति के गुजर जाने के बाद वो वैधव्य , तुषार-वृता अपने दिल के दर्द को और सह न सकीं शायद । मेरी नानी अपने में हर एक नानी की तरह आदरणीय थीं ।

मैं अपने नानीहाल में ही पैदा हुआ था और अपने बचपन की मेरी कुछ सबसे प्यारी यादें नानीहाल से जुडी रहेंगी । जब मैंने बचपन में कभी चिट्ठी लिखनी सीखी थी , तो अभी भी याद है की माँ ने कहा था की नानी को चिट्ठी लिखो ... स्कूल जाने को एक साइकिल के लिए ,हलाँकि मेरी साइकिल की ऐसी कोई चाहत नहीं थी, बस नानी को लिखने की उमंग थी।
छुट्टियों में जब ननिहाल गया , बड़े प्यार से नानी ने मुझे चूमा था और कहा था की मेरा नाती खूब पढ़े-लिखे और बड़ा आदमी बने (और जब मैं बड़ा हो गया, तो इस भागम-भाग की जिंदगी में नानी से उतनी ही कम बार मिल पाया ) । नानी मेरे हर छिट्ठी का जवाब लिखती थी और बड़े प्यार से पढने और सेहत का ख्याल रखने को लिखतीं । ननिहाल से कोई ख़त होता था तो मैं सबसे पहले नानी की चिट्ठी पढ़ा करता, फिर अपनी किसी मौसी या मामा की । अभी हाल तक जब मैं 'PG' में था तब तक मैंने नानी को चिट्ठी लिखी , नए साल में हर साल ग्रीटिंग भेजे ।

उनकी बनायीं वो शुद्ध घी के बेसन के लड्डू का स्वाद कैसे भुला सकता हूँ मैं ?
मेरी मछलियों से सारे कांटे वो निकालतीं थीं. मेरे लिए दूध -रोटी की कटोरी लाती और खिलाती .
जो भी फरमाइश करूँ ,जरुर पूरा करवातीं ...
मेरे ननिहाल में मेरी माँ सात बहनों और तीन भाइयो से हैं । वहाँ एक नानी थी जो सबका ख्याल रखती थीं । हम बच्चों की चहेती नानी के कुछ कहानियों की reciordings मेरे पास हैं जिसमे वो अभी भी उतनी ही जीवंत हैं, हमारे उतने ही करीब ।
नाना-नानी के गुजर जाने के बाद, ननिहाल से वो लगाव अब पता नहीं कितना रह पायेगा । ख़ैर चाहे जो भी हो ,
"...मोहल्ले की सबसे निशानी पुरानी , वो बूढीया जिसे बच्चे कहते थे नानी ,
वो नानी की बातों में परियों का डेरा , वो चहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा ,
भुलाए नही भूल सकता है कोई, वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी ..."



Thursday, May 14, 2009

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Sunday, May 10, 2009

The mother is everything! (माँ ही सबकुछ है )

" The mother is everything - She is our consolation in sorrow, our hope in misery, and our strength in weakness. She is the source of love, mercy, sympathy, and forgiveness.
He who loses his mother loses a pure soul who blesses and guards him constantly। "

"इस संसार में माँ ही सबकुछ है वह दुःख के समय सान्तावना है ,

संकट के समय में आशा है और दुर्बलता के क्षणों में एक शक्ति है

वह करुणा , सहनशीलता और क्षमा की उद्गम-स्थली है

जो अपने माँ को खो देता है वह एक ऐसे सीने को खो देता है जिस पर

सिर टिका कर उसे आराम मिल सकता है ;

एक ऐसे हाथ को खो देता है जो आशीर्वाद के लिए उठता है और ऐसी

आँखों को खो देता है जो हमेशा उसे देखती रहती हैं । "

Thursday, April 30, 2009

दिल ही तो है....

अभी पिछले सप्ताह कि बात है जब मैं ऑफिस के लिए निकल रहा था कि एक दुखद समाचार प्राप्त हुआ... सुना कि मेरे 'नाना जी' इस दुनिया में नही रहे...

ह्रदय व्याकुल हो गया और बरबस ही आँखें डबडबा गयीं । उनकी यादों ने अचानक ही जैसे मुझे घेर लिया और एक पल के लिए मुझे विश्वाश ही न हुआ कि ऐसा भी हुआ होगा... प्रिय जन की मृत्यु का इतना संताप हुआ मुझे और फ़िर कुछ सोचने सा लगा मैं ...
गीता कहती है कि ,

इन ज्ञान की बातों को सुन कर भी किसी के सदा के लिए चले जाने का जो दुःख आदमी अनुभव करता है वो अकथ्य है।

मुझे याद है जब पहली बार मुझे ये अहसास हुआ था कि कोई मरने वाले फ़िर वापस नही आते। जब मैंने एक दुर्घटना में अपना अति प्रिये पालतू कुत्ता खो दिया था और फ़िर मैं बहोत रोया था , बहोत चिल्लाया था पर वो तो जा चुका था कभी वापस न आने को । सच में मैं जितना उस बार ठगा सा था इस जीवन की पहेली में उतना उसके बाद कभी फ़िर से न हुआ, जब कभी भी मेरे और भी किसी प्रिये जन का निधन हुआ । मुझे लगा कि ऐसे ही एक दिन मैं भी गुजर जाऊंगा । प्रेम किसी समय कितना असहाय होता है...।
"दिल ही तो है न संगो खिश्त रोये न जार जार क्यूँ..."
एक बार जब मैं अपने एक सम्बन्धी को कन्धा दे कर समशान गया तो उस घाट पे मुझे लगा कि जैसे मैं 'गौतम बुध' हो गया। जीवन का सार मेरे सामने था , इस भागमभाग का अंत मेरे सामने कि चिता में धू धू कर जल रहा था ...गंगा किनारे मेरी वो शाम अपने आप में चिर-स्मरणीय है ।
"मृत्यु एक सरिता है जिसमे श्रम से कातर जीव नहा कर,
फ़िर नूतन धारण करता है काया रूपी वस्त्र बहा कर ..."
आज भी मैं जब भी कभी किसी समाचार में सुनता हूँ कि इतने लोग फलां वजह से इस दुनिया में नही रहे तो मन कचोट उठता है कि इस में उनका क्या दोष था... जीवन में मृत्यु का अनुभव इतना कष्टकर क्यूँ है?
सोचता हूँ की हमारी ये प्रार्थना कब साकार होगी ?
"सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामया ,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु , मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् .."

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