"जिन्दगी मैं भी मुसाफिर हूँ तेरी कश्ती का, तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊंगा..."
"फूल रह जाएँगे गुल्दानो मे यादों की नजर , मैं तो खुशबू हूँ फिजाओं मे बिखर जाऊंगा..."
और फ़िर उन सूखे फूलों का कोई क्या करेगा? हाँ कहीं जमीं मिली तो नए फूलों के मौसम मे वे फ़िर से फूल खिला सकेंगे ऐसा भी हो सकता है.. पर इतनी फुरसत किसे है .... शायद तुम्हे भी नही और मुझे भी नही.
हमारे फ़ासले अपने लोगों से इन् दिनों यूं बढ़ती क्यों जा रही हैं?हम अपने अहेम (इगो) के व्हेम (भ्रम) मे जिंदा तो हैं पर कहीं जिन्दगी से पास होके भी दूर हैं...
इस दूरी को ख़त्म करें तो कैसे करें? दिल मे हज़ार जज्बात हों फ़िर भी उन तक वो सदा कैसे पहुंचे?अपनी तन्हाईयों मे दिल इतना बेजार सा क्यों है? .....
आज कि इस खासे मसरूफ जिन्दगी मे खुशी है भी कहीं क्या ?....
बारहा इसकी तलाश मे हम इतने नाकामयाब से क्यों हैं? ....
Saturday, January 19, 2008
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- smilekapoor
- Hi, I'm a simple man who wants to be friend with nature and all around. I welcome you to be in tune with yourself only...keep smiling! :)
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